Wednesday, October 2, 2013

माँ तो सबकी एक-जैसी होती है न

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बस से उतरकर जेब में हाथ डाला। मैं चौंक पड़ा। जेब कट चुकी थी।

जेब में था भी क्या? कुल नौ रुपए और एक खत,
जो मैंने माँ को लिखा था कि—मेरी नौकरी छूट गई है;

अभी पैसे नहीं भेज पाऊँगा…।
तीन दिनों से वह पोस्टकार्डजेब में पड़ाथा।

पोस्ट करने को मन ही नहीं कर रहा था।
नौ रुपए जा चुके थे। यूँ नौ रुपए कोई बड़ी रकम नहीं थी,
लेकिन जिसकी नौकरी छूट चुकी हो,
उसके लिए नौ रुपए नौ सौ से कम नहीं होते।

कुछ दिन गुजरे। माँ का खत मिला। पढ़ने से पूर्व मैं सहम गया।
जरूर पैसे भेजने को लिखा होगा।….
लेकिन, खत पढ़कर मैं हैरान रह गया।
माँ ने लिखा था—“बेटा, तेरा पचास रुपए
का भेजा हुआ मनीआर्डर मिल गया है।तू
कितना अच्छा है रे !…
पैसे भेजने में कभी लापरवाही नहीं बरतता।”

मैं इसी उधेड़- बुन में लग गया कि आखिर
माँ को मनीआर्डर किसने भेजा होगा?
कुछ दिन बाद, एक और पत्र मिला।

चंद लाइनें थीं—आड़ी-तिरछी। -­
बड़ी मुश्किल से खत पढ़ पाया।
लिखा था—“भाई, नौ रुपए तुम्हारे और
इकतालीस रुपए अपनी ओर सेमिलाकर मैंने
तुम्हारी माँ को मनीआर्डर भेज दिया है।

फिकर न करना।….
माँ तो सबकी एक-जैसी होती है न।

वह क्यों भूखी रहे ?…
तुम्हारा—जेबकतर

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